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म॒हश्च॑र्क॒र्म्यर्व॑तः क्रतु॒प्रा द॑धि॒क्राव्णः॑ पुरु॒वार॑स्य॒ वृष्णः॑। यं पू॒रुभ्यो॑ दीदि॒वांसं॒ नाग्निं द॒दथु॑र्मित्रावरुणा॒ ततु॑रिम् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

mahaś carkarmy arvataḥ kratuprā dadhikrāvṇaḥ puruvārasya vṛṣṇaḥ | yam pūrubhyo dīdivāṁsaṁ nāgniṁ dadathur mitrāvaruṇā taturim ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

म॒हः। च॒र्क॒र्मि॒। अर्व॑तः। क्र॒तु॒ऽप्राः। द॒धि॒ऽक्राव्णः॑। पु॒रु॒ऽवार॑स्य। वृष्णः॑। यम्। पू॒रुऽभ्यः॑। दी॒दि॒ऽवांस॑म्। न। अ॒ग्निम्। द॒दथुः॑। मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒। ततु॑रिम् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:39» मन्त्र:2 | अष्टक:3» अध्याय:7» वर्ग:13» मन्त्र:2 | मण्डल:4» अनुवाक:4» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (मित्रावरुणा) प्राण और उदान वायु के सदृश वर्त्तमान सभा और सेना के ईश आप दो जन (पूरुभ्यः) बहुतों से (यम्) जिस (ततुरिम्) शीघ्रता करते हुए (दीदिवांसम्) प्रकाशमान (अग्निम्) अग्नि के (न) सदृश विनय को (ददथुः) देते हैं उस (पुरुवारस्य) बहुत श्रेष्ठ जनों से स्वीकार किय गये और (दधिक्राव्णः) विद्या की धारणा करनेवालों की कामना करने और (वृष्णः) सुखों के वर्षानेवाले के जो (क्रतुप्राः) बुद्धि के पूर्ण करनेवाले उन (महः) बड़े (अर्वतः) घोड़ों के सदृशों को और कार्य्य को मैं (चर्कर्मि) निरन्तर करता हूँ ॥२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो राजा बुद्धिवाले और बुद्धि के देनेवालों को सदा धारण करता है, वह सूर्य्य के सदृश प्रतापी होता हुआ शीघ्र अपने कार्य्य को सिद्ध कर सकता है ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ॥

अन्वय:

हे मित्रावरुणा ! पूरुभ्यो यं ततुरिं दीदिवांसमग्निं न विनयं ददथुस्तस्य पुरुवारस्य दधिक्राव्णो वृष्णो ये क्रतुप्रास्तान् महोऽर्वतोऽहं कार्य्यं चर्कर्मि ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (महः) महतः (चर्कर्मि) भृशं करोति (अर्वतः) अश्वानिव (क्रतुप्राः) ये प्रज्ञां पूरयन्ति ते (दधिक्राव्णः) यो विद्याधरान् कामयते तस्य (पुरुवारस्य) बहूत्तमजनस्वीकृतस्य (वृष्णः) सुखानां वर्षकस्य (यम्) (पूरुभ्यः) बहुभ्यः (दीदिवांसम्) देदीप्यमानम् (न) इव (अग्निम्) पावकम् (ददथुः) (मित्रावरुणा) प्राणोदानाविव वर्त्तमानौ सभासेनेशौ (ततुरिम्) त्वरमाणम् ॥२॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । यो राजा प्रज्ञान् प्रज्ञाप्रदान् सदा धरति स सूर्य्य इव प्रतापी सन् सद्यः स्वकार्य्यं साद्धुं शक्नोति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो राजा बुद्धिमान व बुद्धी देणाऱ्यांना सदैव बाळगतो तो सूर्याप्रमाणे पराक्रमी बनून तात्काळ आपले कार्य सिद्ध करू शकतो. ॥ २ ॥